Thursday 29 December 2011

नदी में तलब है?

हाँ
नदी में तलब है,
धुंध बन शाखों पर सो जाने की;
जो है भी और नहीं भी,
फिर आगोशबंद
अज़ल उस लम्हे में खो जाने की;
जो हाज़िर भी हो और नाज़िश भी...

Friday 23 December 2011

क्या होता है

बेखबर रात का
ओस में ढल जाना
ज़र्र ज़र्र करती हवा का
उन्नींदा पालने को हिलाना
आलसी आँखों का खुलना
और उस बूढी माई को सामने पाना
जिसने नर्मदा घाटी में
टकटकी बाँध कहा था
गाँव से मत जाना
क्या होता है
?

Thursday 15 December 2011

तबदीली

कभी,
नानी के गाँव
घर की मुंडेर पर
मटर गश्ती करते
कबूतरों
को उडाती, चिडाती
मैं;
तभी
मुझे
नन्ही गोलमटोल
आँखो से टुकर टुकर
डराते वों
अब,
बिजली के तारों पर
कतारबंध बैठे
कबूतर
मुझे देख रहे हैं;
और,
खिड़की के इस पार
टुकर टुकर
मैं उन्हें देख रही हूँ...