Tuesday 17 March 2009

कल शाम

कल शाम;
कारें भी मुस्कुरा रही थी,
सड़कों में भी अलग सी चमक थी;
दुकाने भी जैसे लपक के झपक के कुछ बता रही थी,
बिनायक सेन के वास्ते जंतर मंतर पर;
हम गीत गा रहे थे,
और उन्हें सुनते सुनते;
बगल में तिब्बत के तम्बू भी कुछ जता रहे थे,
अँधेरे में जगमाते बल्ब ;
हर एक मिनट में पाँच बस,
और हर बस में थकी थकी सी भीड़;
फुटपाथ से चिपकी धुल के साथ,
जैसे तूफ़ान को बुला रही थी;
शायद अपनी हस्ती में मस्त,
दिल्ली भी नया दौर गुनगुना रही थी;
कल शाम

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